दर्ज़ी की सुई

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सन् सैंतालीस के फसाद की जब भी बात छिड़ती है मुझे श्रीमती खुशीचंद याद आती हैं । डायरी लिखने की अपनी आदत मैंने उन्हीं से सीखी । और सच पूछिए तो मुझे इस आदत से लाभ भी पहुँचा । एक तो डायरी लिखने से घटनाएँ लोप नहीं होतीं और दूसरे डायरी में दर्ज होते समय घटनाओं के तथ्य अपनी विलोढ़न-शक्ति से अलग हो जाते हैं और करारी से करारी चोट भी अपना डंक खोने लगती है । श्रीमती खुशीचंद बड़े मनोयोग से डायरी लिखतीं और रोज लिखतीं । उसमें तारीख और समय तो सुनिश्चित रहता ही साथ ही उस दिन