तक़दीर की खोटी

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देहली के एक बडे हॉल में अगले माह मेरे चित्रों की एक एकल प्रदर्शनी आयोजित की जा रही थी । उस शाम मैं एक महत्वपूर्ण चित्र पर काम कर रहा था । एक टूटे दर्पण में एक साबुत मानवी चेहरे के विभिन्न खण्ड उतार कर । तत्पर घोड़ों की मानिन्द मेरे हाथ मेरे कैनवस पर दौड़ रहे थे । सरपट । फिर अचीते ही वह बिदक लिए । मैंने उन्हें लाख एड़ी देनी चाही किन्तु उनकी दुलकी ने रफ्तार पकड़ने से साफ इनकार कर दिया । बिगड़ैल घोड़ों की मानिन्द । क्या उन्हें बाबूजी ने एड़ी लगाई थी ? अथवा