वह सुभग कन्या और निरा मूर्ख मैं

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जब अनुभूतियाँ अपने शीर्ष पर बहने लगें। भाव-नव तरंगें अपने चरम पर गोता लगा रहीं हों। हृदय के कोर-कोर में विस्फोट आलिंगन दे रहे हों, तो क्या है वह? विशुद्ध प्रेम!, मोह अथवा आकर्षण? वृहद संयोग व अवसर का लाभ न उठा पाना! मूर्खता है या सहजता? इनका निर्णय तो आप सब ही करेंगे। ये मात्र संस्मरण के शब्द नहीं दुःख की पीड़ा-रेखा है। निगेबाँ हैं मेरे साये, चला हूँ धूप में जब मैं, मिला हमराह जान-ओ-तन, ताब-बल से ढला हूँ मैं। वो