65 अभी इंदु पचास की भी नहीं हुई थी कि उसे दादी बनने का सौभाग्य प्राप्त होने वाला था | उसका मन अब भी अपने हिस्से की सौंधी धूप की प्रतीक्षा कर रहा था | सूरज की प्रात:कालीन रश्मियाँ मनुष्य के मन में कैसा उत्साह, कैसा उजियारा भर देती हैं ! यह धूप इंदु के जीवन में भी आई, झुलसा देने वाली धूप ! अंतर को झुलसा देने वाली धूप !उसके अंतर की चीर ने बार-बार उसे ऐसे स्थान पर ला खड़ा किया जहाँ वह गुमसुम हो कई बार अजनबी रास्ते पर भी चल पड़ी थी फिर न जाने कौनसी