भाग -18 यह सुनने और गर्दन पर उसके हाथों की जकड़ से मेरा दम घुटने लगा था। मैं एकदम टूट गई और हांफते हुए खुद को उसके ही हाथों में एकदम ढीला छोड़ दिया। इसके बाद उसने, मेरा पेटीकोट, साड़ी मुझे दे दी। मैंने रोते हुए उन्हें जितनी जल्दी हो सका पहन लिया। मुझे उस समय बार-बार बाबू याद आ रहे थे। वह लाख नसेड़ी थे लेकिन रिश्तों के बारे में बड़ा मुंहफट कहते थे कि, ''जोड़े-गांठें के रिश्ते में कोई गर्मीं नहीं होती, पानी होता है पानी, कब बह जाए कुछ पता नहीं।'' यह बात वह इसी घिनौने आदमी