टापुओं पर पिकनिक - 98

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धरती गोल है। और गोल चीज़ कितनी भी बड़ी हो, छोटी सी ही दिखती है। लुढ़कती है तो सब कुछ बार- बार आंखों के सामने आ जाता है। लेकिन इस वक्त तो आंखों के सामने कुछ नहीं आ रहा था। केवल धुआं ही धुआं। आंखों से पानी। बुरी तरह लपटें उठ रही थीं आग की। भगदड़ मची हुई थी। दिल्ली शहर से एक के बाद एक दमकलें घंटियां बजाती सड़कों पर दौड़ी चली आ रही थीं। लेकिन ज्वाला थी कि थमने में ही नहीं आ रही थी। लगता था मानो सब कुछ भस्म हो कर रहेगा। ये कोई जंगल की