पहले कदम का उजाला - 14

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सफलता के बाद*** मैंने घर में रखे उपहारों में से एक सुंदर सी साड़ी उठाई और मन्दिर गई। ईश्वर से आज कुछ न कह पाई। वो तो सब जानते हैं। अब उनसे मैं क्या कहती? प्रभु, मोती कैसा चाहते हो? सागर से लाऊँ या आंखों से दे जाऊँ? दोनों ही तुम्हारे हैं! एक दर्द में, एक गहराई में, एक हम सब के लिए अनमोल, एक का किसी के लिए कुछ मोल! दुनिया को बनाने वाले, मुझे और सीप को रचने वाले,   तुम क्या देने पर पिघलते हो? यह तो सब जानते हैं! तुम को पाने के लिए सीपियों को