आज संसार में चारों तरफ विलाप या रोनें का आंडबर है जिसे जहाँ मौका मिलता है वो अपना विलाप राग गाने लगता है आखिर यह कौन सा समाधान हम सबने ढूंढा है यह तो हम नहीं कह सकते है किंतु खुशियों के सागर से कोसो दूर चले गए है। इन सब के बाबजूद एक परत चढ़ाया है समाज ने एक तरफ विलाप करते है दूसरे तरफ अपने दंभ मद से समाज को रौंदते है अपनी शान शौकत के तले यह मानव सभ्यता को किस किनारे पहुँचाएगा यह सोंच कर हीं रुह कांप उठता है। यह जो हम कर रहे है यह जो तुम