राधारमण वैद्य-आधुनिक भारतीय शिक्षा की चुनौतियाँ - 5

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बाजार की शिक्षा या शिक्षा का बाजार शिक्षा का स्वरूप समाज का निर्माण करता है और सामाजिक प्रयोजन शिक्षा के स्वरूप को बदलता है। शिक्षा का अस्तित्व समाज से अलग नहीं होता। शिक्षा सदैव समाज सापेक्ष होती है। इसलिए शिक्षा का विकास समाज के विकास से कटा हुआ नहीं हो सकता। पर समाज शब्द बड़ा ’वेग टर्म’ (अस्पष्ट अवधारणा) है। यह नियन्ता के अधीन है। यह नियन्ता सरकार या प्रशासक अथवा समाज का प्रभुत्वशाली वर्ग और वर्चस्व-सम्पन्न समुदाय होता है। उसी का निहित हित शिक्षा को स्वरूप प्रदान करता है। इधर पिछले दस-पन्द्रह सालों में देश की शिक्षा