ये उन दिनों की बात है - 24

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उस दिन के बाद से मेरे मन में सागर के लिए कुछ अलग सा ही एहसास पनपने लगा था | जैसे जब भी वो अपनी साइकिल को दौड़ाता हुआ गली में से होकर गुजरता तो मैं उसे देखने के लिए बालकनी में आ खड़ी होती और उसे जाते हुए तब तक देखती रहती, जब तक की वो मेरी आँखों से ओझल ना हो जाता | रात को छत पर घुमते हुए आसमान में चाँद को निहारा करती, तारे गिना करती | उस चाँद में सागर का चेहरा ढूँढा करती | फूलों से बातें किया करती और उनकी खुश्बू को अपनी साँसों