पुरुस्कृत कहानी "पश्चाताप" जिंदगी जो हमें सिखाती है शायद वह किसी पाठशाला में हमें सीखने को नहीं मिलती। वक्त जैसे बेलगाम घोड़े की रफ्तार की तरह भागता ही जा रहा था/ ना जाने कब मैं ५९ वर्ष का एक बेबस इंसान हो गया था। भोर के ४ बजे नींद न आने के कारण आज मैं बिस्तर पर औंधा पड़ा हुआ, जीवन के पिछले उधेड़बुन में उलझ रहा था। आज जैसे अपनी गलतियों का पश्चाताप करना चाह रहा था, मगर मुझे सुनने वाला ही कोई ना था।