जोंक दिल को बार-बार तसल्ली दे रहा हूँ, मगर डर फिर भी लग रहा है. प्रदीप बस की लाइन में मेरे पीछे खड़ा स्त्री जाति की महानता पर लगातार बोले जा रहा है. मेरा जी चाह रहा है कि अब वह अपनी बक-बक बन्द करके चुपचाप अपने घर जाने वाली बस पकड़ने की फ़िक्र करे, लेकिन वह तो जैसे मुझसे चिपका ही हुआ है. उसकी बातें सुनने का उपक्रम करते हुए बीच-बीच में आँख उठाकर मैं बस आने वाले रास्ते की तरफ़ भी नज़र मार लेता हूँ. छह बीस पर बस आनी चाहिए. मैंने घड़ी की ओर देखा है -