[ नीलम कुलश्रेष्ठ ] मैं क्या बदल गई हूँ ? ऊँह, अभी तो नहीं । अभी तो सिर्फ़ पहले जैसे आदर्श विचार ही धसकती हुई मिट्टी की तरह फिसल गये हैं । इन क्षणों में मैं बहुत अस्त-व्यस्त सा महसूस करती हूँ, जब मैं स्वयं को ढूँढ़ना चाहती हूँ, टटोलना चाहती हूँ । अपने को पहचानने की कोशिश के समय भी हम केवल अपनी इच्छाओं का 'सलेक्टिव ऑब्ज़र्वेशन' कर पाते हैं, अपनी कमियों के आगे सबसे अधिक हमारा ही सिर झुकता है, यही भय उन्हें मन में यत्न से पर्दों में छिपा कर रखता है । मुझे शुरू से ही