गोपाल माथुर मैं इन खण्डहरों में बस यूँ ही आ गया हूँ. मुझे यहाँ एक अजीब सी सान्त्वना मिलती है, जैसे मैं बहुत दिनों बाद अपने किसी पुराने दोस्त से मिल रहा हूँ. सर्दियों की छितरी हुई धूप घने पेड़ों की पत्तियों से छन कर खण्डहर के आँगन में सारा दिन चिड़ियों सी खेलती रहती है. किले की दीवारों के पुराने पत्थर हमेषा की तरह उस खेल को देखा करते हैं, उदासीन और निर्लिप्त ! हालांकि मुझे देख कर उन्हें अवष्य आष्चर्य होता होगा कि यह आदमी यहाँ क्यों चला आता है ! अब मैं उन्हें कैसे बताऊँ कि मेरा