जहाँ ईश्वर नहीं था - 3

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3 पर उनके पास हितेश की बात मानने के अतिरिक्त कोई चारा भी नहीं था. उन दोनों के चले जाने के बाद हितेश मेरे पास सरक आया, जैसे हमारे बीच कोई भेद भरे संवाद होने हों. उसने मेरे दोनों हाथों को अपनेे  हाथों में ले लिया और फुसफुसाया, ”अब बताओ, हुआ क्या है ?“ मैं चुप बैठा रहा. यदि मैं उसे बता देता कि मैं मर चुका हूँ, तो निश्चय ही वह मेरा मजाक उड़ा देता, ”दरअसल मुझे सुबह से ही कुछ महसूस नहीं हो रहा है.....“ ”क्या सिर पर कोई चोट वगैहरा लगी थी ?“ ”नहीं.“ ”कोई डिप्रेशन ?“