चैप्टर 30 सरीसृप से प्रचण्ड द्वंद। शनिवार, 15 अगस्त। समुद्र अभी भी अपनी उस मनहूसियत की एकरसता को बरकरार रखे हुए था। वही धूसर रंजीत रूप में जिसपर वही शाश्वत चमक था। कहीं से भी ज़मीन नहीं दिख रहा था। जितना हम आगे बढ़ते, क्षितिज हमसे उतना ही पीछे हटता प्रतीत हो रहा था।मेरा सिर, अभी भी सुस्त और मेरे असाधारण सपनों के प्रभावों से भारी था जिसे मैं अभी तक अपने दिमाग से मिटा नहीं पा रहा था।प्रोफ़ेसर, जिन्होंने ये सपना नहीं देखा है, वो अपनी चिड़चिड़ाहट और बेहिसाब हास्य में कहीं गुम थे। कम्पास के हर बिंदु पर