सूर्यबाला अधबूढ़ी-सी मैं...। सोचा था, हवेली भी अधबूढ़ी ही मिलेगी। उखड़ी-पखड़ी, झँवाई, निस्तेज। पर वह तो जैसे बरसों-बरस की बतकहियों वाली पिटारी लिए, आकुल-व्याकुल बैठी थी मेरी प्रतीक्षा में, खोलकर बिखेर देने को बेचैन। धुँधलाया था तो बस मेरी शादी में, कोहबर की दीवार पर लिखा, 'श्री गणेशाय नमः' और मेहराबों से बँधी पतंगी कागजों वाली झंडियों की कतरनें। हवा की हलकी सिहरन के साथ फुसफुसाती हुई... देखा। हम हैं, अभी भी... समयातीत की यादों को नन्ही-नन्ही कतरनों में सहेजती। पोते-पोतियों की एक पूरी छापामार फौज साथ है। हवेली का कोना-कोना छानती हुई। कुतूहलों और जिज्ञासाओं का कोई अंत नही।