“सोफ़ी ई,ई,अरी, ओ सोफ़ी! कहाँ चली गई? कब से आवाज़ें मार रही हूँ, पर मजाल क्या कि कान पर जूँ भी रेंग जाए? बैठी होगी वहीं कोठा चढ़ कर” बड़बड़ाती हुई अम्मी घुटनें सम्भालती हुई सीढ़ियां चढ़ने लगी। आहट पा सोफ़ी दुपट्टा संभालते हुए उठ खड़ी हुई तब तक अम्मी सात सीढ़ियाँ चढ़ आई थी। उसका ग़ुस्सा भी सातवें आसमान तक जा पहुँचा था। जितनी उसकी साँस फ़ूल रही थी उतनी ही गालियाँ वह सोफ़ी के लिए निकाल रही थी- “करमजली, नासपीटी टीले पर जाकर बैठ जाती है। कामचोर कहीं की।” अब तक पाँच सीढ़ी सोफ़ी भी उतर आई थीं।