बेनज़ीर - दरिया किनारे का ख्वाब - 17

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भाग - १७ मेरी इस लापरवाही को अम्मी निश्चित ही मेरी बदतमीजी ही समझ रही होंगी। सीधे-सीधे यही कह रही होंगी कि, 'बेंज़ी अब पहले वाली बेंज़ी नहीं रही। कैसा सब अपनी मनमर्जी का किये जा रही है। चौदह-पन्द्रह दिनों के लिए इतनी दूर जाने के लिए जोर लगा रही है। लेकिन एक बार भी नहीं कहा अम्मी तू खायेगी- पियेगी कैसे? कौन देखभाल करेगा?' यह सब सोचकर मैं अपनी जान बड़ी सांसत में पा रही थी। लेकिन जाने की जिद ऐसी थी कि मैं मसले का हल निकालने के लिए तड़पने लगी। ऐसे जैसे कि, पानी से कोई मछली