पुरानी फाँक

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पुरानी फाँक सुबह मेरी नींद एक नये नज़ारे ने तोड़ी है..... कस्बापुर के गोलघर की गोल खिड़की पर मैं खड़ी हूँ..... सामने मेरे पिता का घर धुआँ छोड़ रहा है..... धुआँ धुहँ...... काला और घना..... मेरी नज़र सड़क पर उतरती है...... सड़क झाग लरजा रही है..... मुँहामुँह….. नींद टूटने पर यही सोचती हूँ, उस झाग से पहले रही किस हिंस्र आग को बेदम करने कैसे दमकल आए रहे होंगे..... हुँआहुँह..... सोचते समय दूर देश, अपने कस्बापुर का वह दिन मेरे दिमाग़ में कौंध जाता है..... “चलें क्या?” गोलघर के मालिक के बीमार बेटे सुहास का काम निपटाते ही मंजू दीदी