कालचक्र

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कालचक्र उस दिन अचानक आशीष का फोन आया। न जाने कितने समय बाद उसकी आवाज़ कान में पड़ी थी। ये मेरे इकलौते बेटे की आवाज़ थी... उस बेटे की, जिसे बनाने में हमने अपना पूरा जीवन ही लगा दिया था। उसको इतना प्यार किया कि स्वयं को भूल गए पर समर्थ होते ही उसने हमको ही नकार दिया। न हमारा प्यार देखा न त्याग... उसे क्या पता, उसके दिये जख्मों से सीना कैसा छलनी हो चुका है मेरा! सारी संवेदनाएं अब समाप्त हो चुकी हैं... कि मुझे कोई खुशी नहीं हुई है उसकी आवाज़ सुनकर! लेकिन यह क्या, अविश्वास से मेरा