हड़ताल भी जरूरी थी

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हड़ताल भी जरूरी थी सुबह अपने पैर पसारती जा रही थी। गैंदा बाई तेज कदमों से कॉलोनी की तरफ जा रही थी। समय का तो उसे ज्ञान नहीं था लेकिन सूरज के बढ़ते रूप और फैलती धूप को देखकर उसे लग रहा था कि आज फिर उसे देर हो गयी है। बिखरी हुई चमकीली धूप में उसे यकायक मालकिन का चेहरा दिखाई देने लगा, जिनकी त्योंरियाँ चढ़ी हुई थी। गैंदा को लगा सचमुच मालकिन की आँखें उसे फिर घूर रही हैं तो वह घबड़ा गयी और सोचने लगी कि वे आज फिर गुस्से में आ जायेंगी। कहीं उन्होंने ही दरवाजा