दिलरस प्रियंवद (3) ‘नहीं... मुझे बहुत चाहिए। जितनी इधर हैं वे सब। साल भर की दवा बनानी है। पतझर साल में एक ही बार आता है। सूखी टहनियां तभी मिलती हैं। वैद्य जी के पास और भी मरीज आते हैं। उनके भी काम आएंगी।’ ‘किसे चाहिए?’ दुकानदार ने जेब से पीतल की चुनौटी निकाली। तम्बाकू और चूना हथेली पर रखकर घिसने लगा। ‘क्या?’ ‘दवा... तुम्हें बीमारी है।’ ‘नहीं...।’ लड़का हड़बड़ा गया, ‘भाई को।’ ‘क्या?’ ‘वैद्य जी जानते हैं।’ ‘तुम नहीं जानते?’ ‘उन्होंने बताया नहीं।’ दुकानदार कुछ क्षण लड़के को देखता रहा फिर पुतलियों को आंखों के कोनों पर टिका कर पूछा : ‘कहां