मेरे घर आना ज़िंदगी - 21

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मेरे घर आना ज़िंदगी आत्मकथा संतोष श्रीवास्तव (21) कबीर तन पँछी भया, जहाँ मन तहाँ उडि जाय भोपाल बिल्कुल अनजाना शहर। रिश्तेदारों में बस विजयकांत जीजाजी। सभी की जुबान पर बस एक ही बात की क्या जज्बा है आपका । ऐसा कदम उठाने को तो पुरुष भी दस बार सोचेगा। क्या करूं फितरत ही ऐसी पाई है । ठहरे हुए जड़ पर्वत कभी पल भर को नयन सुख देते हैं पर बहती नदिया और पहाड़ों से फूटे झरने दूर तलक संग संग चलते हैं। भोपाल में एंट्री भी हरि भटनागर के शब्दों में धमाकेदार हुई । विजय जीजाजी मुझे भोपाल