स्थायित्व

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कहानी-- स्थायित्व आर। एन। सुनगरया '' हॉं कमलेश मैं इतना टूट चुका हूँ ..... इसलिए ....... बस अब पथराई औखों और अक्रशील बैठे रहना मेरी जान-सागी बन गई है। मैं खुद तो डूबी ही, साथ ही पिताजी और दोनों भाइयों को भी ले डूबी .... मैंने उन्हें भी अपने साथ तड़पने-तरसने और ..... '' रो पड़ी थी शोभा। वह माहोल मुझे ऐसे खाने को दौड़ा कि मैं ना चाहता हूँ भी घर लौटकर आऊँ। लेकिन यह नहीं है? हालत और भी अस्थिर है। रेक पर रखी किताबों पर हाथ घुमाया। टेबल पर पड़ी