नश्तर खामोशियों के शैलेंद्र शर्मा 2. प्रथम वर्ष के छात्र-छात्राओं की पहली क्लास थी. मैं बैठी थी वैसे ही - रोज़ की तरह खामोश,अपने को कहीँ भी एडजस्ट न कर पाने की झुंझलाहट और क्षोभ से त्रस्त. डिसेक्शन हॉल में सन्नाटा छाया हुआ था. कैसे लग रहे थे सब! रैगिंग और नई जगह के भय से त्रस्त, सफेद कपड़े, सीनियरों के डर से कटवाए गए छोटे-छोटे बाल. हाज़िरी शुरू हुई और जैसा कि मैं डर रही थी, रजिस्टर मुझे ही थमाया गया. उस पर झुक कर मैंने आवाज को भरसक संयत बनाते हुए पुकारा, स्टूडेंट्स, अटेंड टू योर रोल कॉल