हक की ज़मीन

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हक की ज़मीन लगातार वारिश से पेड़ों पर अटी धूल छट गयी थी। चारों तरफ हरियाली छाई हुई थी सो सबका मन अपनी ही लौ में भरमा रहा था। सावन का महीना आते ही जगह-जगह झूले पड़ जाते और दुकानें रंग-बिरंगी राखियों से सजने लगतीं, पर सुखदा के मन में टीस उठती। वह हर बरस राखी खरीदती और राखी पूनो के दिन मन मसोसकर ,अपने रबड़ के गुड्डे को राखी बांध देती।उसकी आँखे भर आतीं, पल्लू से आँखें पांेछते हुए बुदबुदा उठती , ‘‘तुम नहीं माने रंजन मैं तुम्हें कैसे मनाऊँ ?’’ ...फिर बचपन के दिन