सन्त कवियों की कविता में लोक एवं लोकोत्तर दर्शन सन्त काव्य अथवा व्यापक भक्ति काव्य के सम्बन्ध में यह स्थापना आध्यात्मिक दर्शन के रूप में काफी समय तक सरलीकरण की तरह प्रचलित रही कि यह काव्य लोक की सर्वथा उपेक्षा करके लोकोत्तर की साधना करता है। प्रत्यक्ष और परोक्ष का यह वैचारिक द्वन्द्व सामान्यतः संवाद की स्थिति तक न पहुँच कर भौतिकता और आध्यात्मिकता के रूपकों में ही समझा जाता रहा। वेदान्त वाङमय के दार्शनिक प्रतिपादन पर आधारित भक्ति और सन्त काव्य का सैद्धान्तिक पक्ष द्वैत और अद्वैत के विभिन्न मतों का विमर्श करता है तथा उसमें जीव