कृति का पुनर्पाठ: सहज आवश्यकता

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कृति का पुनर्पाठ: औपचारिक कर्मकाण्ड से अलग एक सहज आवश्यकता किसी कृति का पाठ या विमर्श उसमें निहित लेखक के रचनात्मक निवेश का उत्खनन है। यह उत्खनन कृति की संभावनाओं के अनुसार पुनर्पाठों के रूप में चलती रहने वाली सतत् प्रक्रिया हो सकती है। चेतना से जुड़ी हुई मानवीय प्रक्रिया होने के कारण कोई रचना निर्माण और उपभोग दोनों ही स्तरों पर वस्तुपरक या निर्लिप्त नहीं होती। इसलिये उसके प्रति बोध की अनेक दिशाएँ हो सकती हैं। यहीं से किसी पुनर्पाठ का जन्म होता है लेकिन पाठ की संभावनाओं की यह अनेकान्तता जाक देरिदा के विखंडनवाद की विभिन्न