चंचल की चाहतें

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कहानी-- चंचल की चाहतें राजेन्‍द्र कुमार श्रीवास्‍तव, ‘’है...हेल्‍लो प्रज्ञा; मैं चंचल!’’ ‘’हॉं चंचल बोलो।‘’ कुछ प्रतीक्षा के बाद, ‘’बोलो क्‍याहुआ!’’ ‘’नहीं कुछ नहीं....।‘’ चंचल ने अपनी मनोदशा बताई, ‘’यूं ही कुछ मन भारी लग रहा था।‘’ ‘’सच बताओ।‘’ प्रज्ञा ने कुछ रोष जताया। ‘’कुछ उधेड़–बुन में; उलझ गई थी।‘’ ‘’कैसी उलझन ?’’ ‘’तुम तो जानती हो प्रज्ञा.....।‘’ चंचल अपनी व्‍यापक व्‍याकुलता दोहराने लगी, ‘’अनेकों प्रयासों के बाबजूद भी समस्‍या ज्‍यों के त्‍यों मुँह वायें खड़ी है।‘’ ‘’..........’’ प्रज्ञा चुप ही रही। ‘’कुछ निदान....’’ चंचल ही बोलती