नैसर्गिक सुख

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लघु कथा-- नैसर्गिक सुख --राजेन्‍द्र कुमार श्रीवास्‍तव ‘’कल्‍लो....कल्‍लो...।‘’ चिल्‍लाते-चिल्‍लाते, मेरी पत्नि धड़धड़ाते हुई, मेरे पास आकर पूछने लगी, ‘’कहॉं है कल्‍लो!ˆ मेरे उत्‍तर की परवाह किये बिना वह घर में ही भड़-भड़ाकर ढूँढने लगी, ‘’किधर हो कल्लो-कल्‍लो!’’’ ‘’...यहाँ हूँ... मेम साब!’’ करता हुआ काम छोड़कर ‘’ हाँ मेम साब...? ‘’मेरे लिये दूघ गरम कर के, लाओ।‘’ आदेशात्‍मक लहजे में, ‘’बैडरूम में हूँ।‘’ ‘’पहले डिनर लगाऊँ; मेमसाब ?’’ ‘’नहीं! पार्टी में खा चुकी हूँ।‘’ कुछ नरम होकर कहा, ‘’बहुत नींद आ रही है, जल्‍दी ला।‘’ .....ये है, श्ष्टिाचारी, संस्‍कारी, सम्‍पन्‍न,