रंगीली के संग संग चले गए उसके जीवन के बचे खुचे रंग। अब नहीं लिखता था, लिखे भी तो किसके लिए? कौन पढ़ेगा? शाम होते होते उसे रंगीली की यादें सताने लगती थी। अंधेरे से आवाज चीरते हुए आती थी " ए छुट्टन बड़े निराशावादी हो बे "" हाँ है हम निराशावादी! पर पलायनवादी तो नहीं "छुट्टन जोर से चीख पड़ा। विचारो के आसमान से यथार्थ के धरातल पर पटकी हुई आवाज बाकी सोये हुए लोगों के नींद को खराब कर गई।छुट्टन दौड़ कर बाहर निकल आया था। दम घुट रहा था उसका वहाँ।यह रात तो सुरसा जैसे बड़ी होते