केसरिया बालम - 15

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केसरिया बालम डॉ. हंसा दीप 15 बदलती नज़रें, बदलता नज़रिया कुछ भी बोलने के लिये शब्दों को तौलना पड़ता था धानी को। एक समय था जब बगैर सोचे जो ‘जी’ में आता, बाली से कह देती थी। कैसा जीवन होता जा रहा था, जहाँ से “जी” हट गया था और अब सिर्फ सुनसान “वन” शेष रह गया था, साँय-साँय करता। जब मन हरा-भरा था तो सब अच्छा लगता था। घर की हर चीज जीवंत लगती थी। वही चीजें जो दिल को कभी खुशियाँ देती थीं, अब एक अलग अर्थ के साथ सामने आने लगी थीं। एक बड़ी, प्यारी-सी महंगी तस्वीर