कुछ दिन बैठने के बाद एक मित्र के सहयोग से दुबारा नौकरी मिल गई मुझे।मशीनी जिंदगी हो गई थी मेरी यहां। और इतना करके भी कुछ नहीं बचता था। लगता था सब छोड़ कर भाग जाऊं। फिर याद आता कि मम्मी पापा ने इतना खर्च किया मेरी पढ़ाई में। दिल्ली मेरी पसंदीदा जगह थी, पर आने के बाद से अब तक कहीं गई नहीं थी मैं। सारे जगहों से परिचित थी मैं यहां, लेकिन सिर्फ किताबों के द्वारा। १५ अगस्त की वह लंबी छुट्टी वाला सप्ताहांत और विनायक - मेरे संस्थान का मित्र आया था दिल्ली। वह मुंबई में कार्यरत था।