प्रोफेसर सर्वेश्वर दयाल को नगर की हलचलो से कुछ मतलब न था, वे जब खूब आराम चाहते थे तो किसी नदी का किनारा खोजते थे और दिनभर वही आसन जमाये रहते थे। एसा ही उस दिन हुआ। वे अपने एक नौकर को लेकर पास बहने वाली नदी ”शरबती“ के किनारे पहुँच गये और दूब से भरे मैदान में दरी बिछाकर लेट गये। नौकर ने पास लाकर टेप चला दिया, जिससे धीमा-धीमा संगीत निकलकर वातावरण को संगीतमय बनाने लगा था। प्रोफेसर दयाल आसमान की ओर ताकते चुपचाप लेटे थे।