राम रचि राखा - 1 - 4

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राम रचि राखा अपराजिता (4) दिन बहुत तेजी से निकल रहे थे। दो सप्ताह कब बीत गये पता भी नहीं चला। इस बीच अनुराग से फोन पर और इ-मेल से बातचीत की आवृत्ति बढ़ गई थी। जिस भी रुप में वे मेरी जिन्दगी में थे, सुखद लग रहा था। शायद मुझे उनकी आदत सी पड़ने लगी थी। उस शनिवार को पंद्रह अगस्त था। डांस क्लास बंद था। सुबह के काम निबटाते-निबटाते बारह बज गये। हमलोग आज देर से भी उठे थे। छुट्टी के दिन प्रायः ऐसा ही होता था। हम देर तक सोते रहते थे। पूर्वी को जाना था। उसका कोई दूर का