जिंदगी

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ज़िन्दगी... काले बादल छाये थे, बादलों की हल्की-हल्की फुहार दोपहरी को शाम की सुहानी छटा दे रही थी। कई महीनों के लॉकडाउन के बाद लोग सड़कों पर दिखने लगे थे पर आधे- अधूरे चेहरे से। वैसे भी लोग कब अपना पूरा नक़ाब बदोश नहीं होते ,खुले चेहरे पर भी तो एक नक़ाब डाला ही रहता है। बस आज कल झूठी मुस्कान, झूठा चेहरा कम देखने को मिल रहा है। सड़कें जो हमेशा भीड़ से भरी रहती हैं, कुछ खाली-खाली है, इन खाली सड़कों और मौसम का आनंद लेते अंकुल बिना छाता चढ़ाये, थैला हिलाते, अपने बेसुरे आवाज़ में "मेरा जूता है-