“अरे...ठाकुरदास...ओ ठाकुरदास...” अन्दर आते हुए डाकिये की आवाज़ ने अमरावती को असहज कर दिया। उसने पास बैठी अपनी दस वर्षीया बेटी कीर्ति को संबोधित करते हुए उत्तर दिया, “जा...डाकिया ताऊ के लै कुस्सी डार दे” फिर थोड़ी ऊँची आवाज में डाकिए से कहा, “वे घरै नाय हैं दद्दा...आप भीतर आवौ...” अमरावती ने अपने सिर पर पड़ा पल्ला आवक्ष खींच लिया और छप्पर से बाहर निकलकर उसे सहारा देने वाली मोटी बल्ली की आड़ में हो गयी। कीर्ति ने प्लास्टिक की कुर्सी दूर अनार के छितराये हुए पेड़ के नीचे खड़े डाकिये के लिए डाल दी। प्लास्टिक की कुर्सी पर पड़ीं