एक अप्रेषित-पत्र महेन्द्र भीष्म कर्कशा ‘‘जवानी में दो—दो भोग चुकने के बाद अब बुढ़ापे में तीसरी करने की मंशा है क्या?‘‘ कृशकाय—कंकाल स्वरूपा पत्नी की कर्कश आवाज सुनकर प्रोफेसर साहब को काठ—सा मार गया। उनकी पत्नी की तनी भृकुटि और कोटरों से बाहर निकलने को बेचैन आँखें देख लग रहा था कि अब कुछ ही पलों में वह प्रोफेसर साहब की कमीज के कालर पर झूलते हुए उनके गाल पर चाँटा जड़ देगी। ठगे—से खड़े, पितातुल्य प्रोफेसर साहब के दोनों हाथ में फँसी अपनी हथेलियोें को निकाल, पत्नी के सामने निरीह, दीनहीन से प्रोफेसर साहब की आँखों में भरपूर दृष्टि