लघुकथा ✍?नाशुक्रे लोग ***********'अरु, आज फिर रात की इतनी रोटियाँ बची हुई हैं ।कितनी बार कहा है तुमसे कि कम बनाया करो, लेकिन तुम मानती ही नहीं हो' 'अरे, हो जाता है कभी-कभार''कभी-कभार, ये तुम्हारा रोज़ का हो गया है अब और ये झूठे बर्तनों में भी पड़ी है''तुम तो जानते ही हो न बच्चों के नखरे, ये सब्जी पसंद नहीं वो सब्जी पसंद नहीं, तो ऐसे ही खाते हैं ''हाँ तो तुम बच्चों के हिसाब से परोसो न उन्हें, बड़ों के हिसाब से नहीं ''अच्छा, अब तुम बच्चों के खाने पर भी नज़र टिकाओगे ,हद ही कर दी है तुमने''मैं कहता