सांझ सहचरी

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‘‘जीजी उठो, चाय ले आई.’’ ‘‘अरे... मुझे जगा दिया होता. मैं बना देती.’’ ‘‘इस बुढ़ापे में हम दोनों को ही अच्छी नींद कहां आती है. तुम्हारी झपकी-सी लग गई थी, सो नहीं उठाया. मैं ही बना लाई, आज मेरे हाथ की पनीली चाय ही पी लो.’’ ‘‘अरे ऐसे क्यों बोल रही है? पिछले चार महीनों में तेरे हाथ की बनी चाय पीकर, सच पूछो तो मुझे यही चाय अच्छी लगने लगी है. उबाल-उबाल के काढ़ा की हुई चाय तो मैं अम्मा की वजह से बनाती थी. फिर इनकी वजह से. क्योंकि इन दोनों को वैसी ही चाय अच्छी लगती थी,