सुनसान वीरानी पगडंडी पर वो परछाई न जाने कब से अपनी आहट को समेटे रात के इस अंधियारे को छेड़ते हुए जा रही थी। रात के सन्नाटे को चीरती हुई उल्लुओं की आवाज सीधे हृदयाघात के लिए काफी थी। परंतु परछाई की धड़कने कमजोर नही थी। उसे आदत थी ऐसे बीहड़ जंगलों की जो अकेले थे पर हमेशा उसके आस पास थे। चंद्रमा बार बार काले धूसर बादलों में छुप कर ये जता रहा था कि वह भी इस सुनसान जंगल के कोनो में अपनी रौशनी नही पहुंचाना चाहता। सियार की रोने की आवाज जैसे उस परछाई के लिए मामूली