बेहा

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गाँव के किनारे घने जंगल के कोने से दुबकी नहर गर्मी के डर से पेट में पानी चिपकाए खेतों की ओर पैर पसार कर पट्ट लेटी पड़ी है, जिस पर मुँह उचका उचका बेहा (बेहया) के पौधे चारों ओर झाँक-झाँक कर तरी खोजने में लगे हैं । भकुआ मारे इन पौधों के बीच आज रेखवा और उसकी अम्मा सुनरिया साँप-गोजर की बिना परवाह किए लुका (छिप) कर बैठी हैं । आखिर वे करतीं भी क्या, बाहर विषैले इंसान जो थे ! नहर में ये वही बेहा पसरे पड़े हैं जिन्हें नहर से लगे खेत में बार बार जाम (उग) जाने