चिरनिद्रा ------------ डाकघर में बैठी वह अपनी निस्तेज आँखों को यूँ ही इधर उधर घुमाने लगी।युवा चेहरे कम थे, उसके जैसे भी कुछेक ही ,अधिक चेहरे बेचारगी से मुरझाए हुए से ! जैसे उन चेहरों को ताउम्र ऊबड-खाबड रास्तों पर चलते हुए उनकी ऊर्जा का सारा सत निचोड़कर आशाओं को सूने कमरे की खूँटी पर टाँग दिया गया था ।काँपते हाथों से डाकघर के किसी फ़ार्म पर हस्ताक्षर करने के लिए डेस्क पर झुके हुए चेहरों के बदन भी कँपकँपा से रहे थे | किसी उम्रदराज़ के साथ कोई आया था तो कोई बेचारा लाठी टेकते हुए