"उत्तराधिकर्मी" (कहानी) - प्रबोध कुमार गोविल आज खाना फ़िर नहीं बना। दोनों अलग - अलग कमरे में हाथ की कोहनी से माथा ढके सरेशाम सोते रहे। सोना तो क्या था, स्थितियों के प्रति अपनी अवज्ञा जताने का एक शिगूफ़ा था। घर की लाइटें तक नहीं जलाई गई थीं। कभी बचपन में दादी- नानी से सुना होगा कि दोनों वक़्त मिले सोते नहीं हैं। और अंधेरा घिरते ही दीया- बाती ज़रूर कर लेते हैं। पर अब न तो दादी- नानी रहीं, और न ही बचपन। नानी तो यहां तक कहती थी कि रोटी पर लगाने को घी या सब्ज़ी बघारने को