चाँद से गुफ्तगू

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" चाँद से गुफ्तगू "कल पूनम के चांद पर मन जा अटका। बड़ी सी गोल बिंदी जैसा... प्रकृति मानो सितारों से भरी चुनरी पहने,बड़ी सी बिंदी लगाए मुझे मेरी खिड़की से निहार रही थी।मैंने घड़ी देखी रात के दो बज रहे थे।नींद आँखों से लगभग गायब हो चुकी थी।कई पलों तक हम दोनों एक दूसरे में उलझे रहे... चाँद मुझ में और मैं चाँद में।चाँद ने मुझसे पूछा- "कैसी हो ?"मैंने कहा- "कैसी रहूँगी, ठीक ही हूँ...तुम तो स्वतंत्र विचरण कर रहे हो,हम यहाँ बँधे पड़े हैं..घर में... न कहीं आना, न जाना, न किसी से मिलना-जुलना.." सुनकर चाँद बहुत जोर