कुबेर डॉ. हंसा दीप 24 जब कभी डीपी गाँव की याद में खोता, शहरी सभ्यता के हर लटके-झटके को भूल जाता। गाँव के माहौल का लुत्फ़ उठाने की कोशिश करता। जैसा वहाँ होता था, उठो और शुरू हो जाओ। वहाँ दिनचर्या दिन पर नहीं, काम पर निर्भर थी जो कभी होता, कभी नहीं होता। बाबू मजदूरी के लिए जाते किन्तु कई बार खाली हाथ लौटते। माँ भी जातीं, कभी पैसे मिलते, कभी नहीं मिलते। जब नहीं मिलते तो वे पानी पीकर सो जाते। धन्नू के लिए हमेशा थोड़ा राशन बचा कर रखते ताकि उसे कभी भूखा न सोना पड़े। एक