ये बात 1978-80 के आसपास की है। तब हमारे घर में सरिता, मुक्ता जैसी पत्रिकाऐं आया करती थी। बाद में इनमें गृहशोभा और गृहलक्ष्मी जैसी पत्रिकाओं का नाम भी इसी फेहरिस्त में जुड़ गया। तब उनमें छपी पारिवारिक रिश्तों की गंध में रची बसी कहानियों को मेरी माँ के अलावा मैं भी बड़े चाव से पढ़ा करता था। उस समय जो भी...जैसा भी मिले, मौका पाते ही मैं ज़रूर पढ़ता था। अब उसी तरह के कलेवर से सुसज्जित कहानियों को पढ़ने का मौका मुझे रोचिका अरुण शर्मा जी के कहानी संग्रह "जो रंग दे वो रंगरेज़" से मिला। अपनी कहानियों के