वृंदावन के गलियारों से कृष्ण तुम कहाँ गुम हो गए? मन कुछ बहुत ही विचलित था। ईष्वर जो मात्र अनुभूति के स्तर पर ही प्राप्त हो सकता है जैसे इस चलती फिरती दुनिया में उसे पा लेना चाहती थी। कैसी विडम्बना है मनुष्य के मन की । भीतर ही मिलने वाले उस तत्व को विचलित हो , बाहर खोज-बीन शुरू कर देता है। क्या बाहर भटकती इस दुनिया में हे ईष्वर! तुझे पाना आसान है? क्या भीतर न मिल पाने की अवस्था में तू मुझे बाहर मिल जाएगा? ये प्रष्न मेरा किसी और से नहीं ,अपने आप से ही है।