एक जुलूस के साथ – साथ नीला प्रसाद (1) होटल के डाइनिंग हॉल में दो कोनों पर खड़े हमदोनों की नजरें अनायास मिल गईं। फिर उन नजरों के मिलन से बने पुल पर तेजी से बहती- तैरती, पिघली हुई यादें आने- जाने लगीं। वे बहुत तकलीफदेह यादें थीं- व्यवस्थित, चमकदार, चिकने जीवन की परतों में छेद कर उन्हें अव्यवस्थित, बदरंग, खुरदुरा, बदशक्ल बना देने वाली यादें... यादें, जिन्हें अतीत के गैरफैशनेबल कपड़ों की तरह हमने वर्तमान के फैशनेबल कपड़ों की तमाम तहों के नीचे दबा दिया था, अब असुविधा उत्पन्न करती हुई, जादू से सब उलट- पलट कर, सतह पर